🌍जलवायु परिवर्तन – वैश्विक कृषि के लिए एक उभरती चुनौती एवं उसका निवारण
भाग–1 : जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि एवं कृषि पर इसके वैश्विक प्रभाव
प्रस्तावना
मानव सभ्यता के विकास में कृषि का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। आदिकाल से लेकर आज तक कृषि ही वह आधार रही है, जिसने मानव को स्थायी जीवन, खाद्य सुरक्षा और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना प्रदान की। किंतु 21वीं शताब्दी में कृषि के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती उभरकर सामने आई है, वह है जलवायु परिवर्तन। यह न केवल प्राकृतिक पारिस्थितिकी के लिए, बल्कि संपूर्ण खाद्य तंत्र और आजीविका के लिए भी गंभीर संकट का संकेत देता है।
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन पैनल (IPCC) की रिपोर्टें बार-बार इस तथ्य को उजागर कर चुकी हैं कि पृथ्वी का तापमान औद्योगिक क्रांति से अब तक लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन, अनियंत्रित औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और वनों की कटाई इस वृद्धि के मुख्य कारण हैं। इसका सीधा असर कृषि उत्पादकता, मृदा स्वास्थ्य, जल संसाधन, फसल विविधता और अंततः खाद्य सुरक्षा पर पड़ रहा है।
जलवायु परिवर्तन की मुख्य विशेषताएँ
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वैश्विक तापमान वृद्धि – औसतन हर दशक में तापमान बढ़ रहा है। इससे फसल अवधि (growing season) पर असर पड़ता है।
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असामान्य वर्षा पैटर्न – कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, अनिश्चित मानसून, जिसके कारण खेती की योजना असफल हो जाती है।
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समुद्र-स्तर में वृद्धि – तटीय कृषि भूमि खारे पानी के प्रभाव से अनुपजाऊ होती जा रही है।
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चक्रवात व तूफान की आवृत्ति में वृद्धि – पूर्वी भारत, बांग्लादेश जैसे क्षेत्रों में बार-बार आपदाएँ।
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कीट-पतंग व रोगों की नई किस्में – तापमान और आर्द्रता में बदलाव से pest-dynamics बदल रहे हैं।
कृषि पर वैश्विक प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सभी महाद्वीपों की कृषि पर देखा जा रहा है, यद्यपि प्रत्येक क्षेत्र की भौगोलिक व सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अनुसार इसकी तीव्रता अलग है।
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एशिया – धान और गेहूँ जैसी मुख्य फसलें सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं हैं।
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भारत में मानसून की अनिश्चितता से धान उत्पादन प्रभावित हुई।
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चीन में उत्तर के शुष्क क्षेत्रों में पानी की कमी से संकट उत्पन्न हो चुका है।
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जूट, गन्ना जैसी नकदी फसलें भी बाढ़/सूखे की मार झेल रही हैं।
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अफ्रीका – यहाँ की 60% आबादी कृषि पर निर्भर है।
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सूखे की आवृत्ति बढ़ने से मक्का, ज्वार, बाजरा जैसी फसलें प्रभावित हुई है।
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पशुपालन पर भी विपरीत असर हो चुका है।
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यूरोप –
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अंगूर और गेहूँ की खेती में असामान्य मौसम से गिरावट का रूख है।
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दक्षिण यूरोप में गर्मी से olive व सब्ज़ियाँ प्रभावित हुई हैं।
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अमेरिका –
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अमेरिका में मक्का और सोयाबीन उत्पादन में कमी हुई है।
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लैटिन अमेरिका के कॉफी उत्पादक देश (ब्राज़ील, कोलंबिया) सबसे अधिक प्रभावित हुई है।
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ऑस्ट्रेलिया –
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लगातार सूखा और झाड़ी आग (Bushfire) से फसल व पशुधन दोनों संकट में है।
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भारत में जलवायु परिवर्तन और कृषि
भारत की 55% से अधिक आबादी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। यहाँ मानसून का कृषि में निर्णायक स्थान है। IPCC और भारतीय मौसम विभाग के अनुसार:
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औसतन तापमान में 0.6–0.7°C वृद्धि हो चुकी है।
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मानसून का आगमन व प्रस्थान अनिश्चित हो गया है।
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बाढ़–सूखा एक साथ अलग-अलग राज्यों में देखने को मिलता है।
फसलों पर प्रभाव
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धान – असम, बंगाल, बिहार जैसे राज्यों में बाढ़ से नुकसान; पंजाब-हरियाणा में तापमान वृद्धि से दाने की भराई कम हो गई।
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गेहूँ – उत्तर भारत में गर्म हवाओं (heat wave) से उपज में कमी आई है।
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दलहन व तिलहन – अनियमित वर्षा और सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है।
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जूट और सहायक रेशे (Allied Fibres) –
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जूट मुख्यतः गंगा-ब्रह्मपुत्र डेल्टा क्षेत्र में होता है।
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जलभराव से फसल गलने लगती है।
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अत्यधिक सूखे में रेशा मोटा और कम गुणवत्ता वाला हो जाता है।
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फ्लैक्स, रैमी, केनफ जैसी अन्य रेशेदार फसलें भी असमान वर्षा की शिकार हुई है।
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जूट एवं सहायक रेशों पर विशेष चर्चा
जूट और allied fibres (फ्लैक्स, रैमी, सन, केनफ) का वैश्विक महत्व लगातार बढ़ रहा है क्योंकि ये बायोडिग्रेडेबल, इको-फ्रेंडली और टिकाऊ विकल्प प्रदान करते हैं। “प्लास्टिक फ्री विश्व” की दिशा में इन रेशों का योगदान अहम है।
लेकिन जलवायु परिवर्तन से इन पर गहरा असर पड़ रहा है—
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अत्यधिक वर्षा व बाढ़ – जूट की रोपाई और रेटिंग प्रक्रिया (retting process) प्रभावित हुई है।
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पानी की कमी – उचित रेटिंग न हो पाने से रेशा कम गुणवत्ता वाला हो जाता है।
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नई बीमारियाँ व कीट – गर्म वातावरण में fungal diseases का खतरा उत्पन्न हो गया है।
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मृदा क्षरण – तटीय व नदी किनारे की भूमि पर खारे पानी का असर हुआ हैसंतुलनसंधान और समाधान
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ICAR-CRIJAF (कोलकाता) में उच्च उत्पादकता वाली किस्में विकसित की जा रही हैं।
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“समर्थनकारी तकनीक” जैसे ribbon retting, microbial retting आदि विकसित हो रही हैं।
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सूखा सहनशील व रोग प्रतिरोधक किस्मों पर शोध जारी है।
वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर संकट
FAO (संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन) के अनुसार, 2050 तक विश्व की जनसंख्या 9.7 अरब होगी। इतनी बड़ी आबादी के लिए खाद्य उत्पादन में 50–60% वृद्धि आवश्यक है। किंतु जलवायु परिवर्तन के चलते उपज घटने का अनुमान है।
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गेहूँ में 10–15% कमी
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धान में 8–10% कमी
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मक्का में 15–20% कमी
यदि वैकल्पिक फसलें (जैसे जूट व allied fibres) और वैज्ञानिक नवाचारों का समावेश न हुआ तो खाद्य एवं आर्थिक संकट गहराएगा।
भाग–2 : जलवायु परिवर्तन के कारण, वैज्ञानिक पहलू और कृषि पारिस्थितिकी पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन केवल एक पर्यावरणीय समस्या नहीं है, बल्कि यह एक बहुआयामी वैश्विक चुनौती है। इसके पीछे की वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को समझना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जब तक हम इसके वास्तविक कारण और प्रभावों को नहीं जानेंगे, तब तक इसका स्थायी समाधान भी संभव नहीं होगा।
कृषि पारिस्थितिकी (Agro-ecology) वह जटिल प्रणाली है जिसमें मृदा, जल, वायु, जीव-जंतु और पौधों का आपसी संतुलन होता है। जलवायु परिवर्तन इसी संतुलन को तोड़ रहा है। इस भाग में हम विस्तार से देखेंगे कि यह असंतुलन कैसे कृषि उत्पादन को प्रभावित कर रहा है।
जलवायु परिवर्तन के प्रमुख कारण
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ग्रीनहाउस गैसों (GHG) का अत्यधिक उत्सर्जन
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कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), मीथेन (CH₄), नाइट्रस ऑक्साइड (N₂O) जैसी गैसें वायुमंडल में बढ़ रही हैं।
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कृषि क्षेत्र स्वयं भी इन गैसों का एक बड़ा स्रोत है —
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धान की खेती से मीथेन उत्सर्जन,
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उर्वरकों से नाइट्रस ऑक्साइड,
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पशुधन से मीथेन गैस।
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औद्योगिकीकरण और ऊर्जा खपत
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कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधन का प्रयोग।
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बिजली उत्पादन, परिवहन और भारी उद्योगों से CO₂ उत्सर्जन।
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वनों की कटाई (Deforestation)
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वनों को कृषि भूमि या शहरीकरण के लिए नष्ट करना।
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इससे कार्बन भंडारण की क्षमता घटती है और वातावरण में CO₂ बढ़ता है।
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भूमि उपयोग परिवर्तन
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wetlands, घासभूमि और नदी तंत्र को बदलकर खेती या उद्योग हेतु प्रयोग।
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इससे स्थानीय जलवायु व जैव विविधता पर असर।
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जनसंख्या वृद्धि और उपभोग की प्रवृत्ति
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बढ़ती आबादी के लिए भोजन, ऊर्जा और वस्तुओं की अधिक मांग।
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इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का असंतुलित दोहन।
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वैज्ञानिक दृष्टि से जलवायु परिवर्तन की प्रक्रियाएँ
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ग्रीनहाउस प्रभाव (Greenhouse Effect)
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सूर्य की किरणें पृथ्वी तक पहुँचती हैं, परंतु CO₂, CH₄ जैसी गैसें ऊष्मा को वायुमंडल से बाहर नहीं जाने देतीं।
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इससे पृथ्वी का औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है।
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ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)
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तापमान बढ़ने से हिमनद पिघल रहे हैं।
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समुद्र स्तर बढ़ रहा है।
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कृषि क्षेत्र में उष्णकटिबंधीय परिस्थितियाँ बदल रही हैं।
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जल चक्र (Hydrological Cycle) में बदलाव
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अधिक वाष्पीकरण, असमान वर्षा।
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कुछ क्षेत्रों में अधिक बाढ़, कुछ क्षेत्रों में लगातार सूखा।
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जैव विविधता (Biodiversity) में असंतुलन
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कई प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर।
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कीट-पतंगों और रोगों का विस्तार नई जगहों पर।
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कृषि पारिस्थितिकी पर प्रभाव
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मृदा स्वास्थ्य (Soil Health)
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अत्यधिक वर्षा से मृदा कटाव।
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सूखा पड़ने पर कार्बनिक पदार्थ कम होना।
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मिट्टी में लवणता बढ़ना।
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जल संसाधन (Water Resources)
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अनिश्चित मानसून से सिंचाई संकट।
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भूजल स्तर गिरना।
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नदियों और तालाबों का सूखना।
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फसल चक्र और उत्पादकता
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फसल अवधि (growing season) छोटी हो रही है।
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समय से पहले पकने से उपज घट रही है।
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हीट स्ट्रेस से गेहूँ, दलहन और तिलहन प्रभावित।
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पशुपालन
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अधिक तापमान से दूध उत्पादन कम।
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चारे की कमी।
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रोग बढ़ना।
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जूट और सहायक रेशों पर प्रभाव
जूट एवं allied fibres कृषि पारिस्थितिकी से सीधे जुड़े हैं क्योंकि ये नदी घाटी और आर्द्रभूमि में अच्छे से पनपते हैं। जलवायु परिवर्तन इनकी भौगोलिक वितरण, गुणवत्ता और उत्पादन पर बड़ा असर डाल रहा है।
मुख्य प्रभाव:
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अत्यधिक वर्षा और बाढ़
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बीज अंकुरण व पौध विकास प्रभावित।
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खेत जलमग्न होने से पौधे गल जाते हैं।
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सूखा और उच्च तापमान
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पौधों की वृद्धि धीमी।
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रेशा मोटा और कम गुणवत्ता वाला।
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रेटिंग प्रक्रिया (Retting Process) पर असर
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पारंपरिक जल-रेटिंग के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिलता।
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कहीं बाढ़ से बहुत गहराई तक पानी भर जाता है, जिससे over-retting होता है और रेशा सड़ जाता है।
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नई बीमारियाँ
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उच्च आर्द्रता से fungal disease बढ़ना।
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सूखा पड़ने पर कीट आक्रमण।
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वैज्ञानिक अनुसंधान और नवाचार
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नई किस्में (Varieties)
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ICAR-CRIJAF और अन्य संस्थानों ने उच्च उत्पादकता और रोग प्रतिरोधक किस्में विकसित की हैं।
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सूखा एवं बाढ़ सहनशील किस्मों पर शोध जारी है।
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रेटिंग में तकनीकी सुधार
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Ribbon Retting तकनीक से कम पानी में बेहतर गुणवत्ता।
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Microbial Retting में विशेष सूक्ष्मजीवों का उपयोग, जिससे रेशा चमकदार व मुलायम होता है।
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कृषि पद्धतियाँ
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फसल चक्र में विविधता (Jute-Rice-Pulses system)।
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Integrated Pest Management (IPM) अपनाना।
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सटीक कृषि तकनीक (precision agriculture) का प्रयोग।
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जल प्रबंधन
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वर्षा जल संचयन।
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सूक्ष्म सिंचाई तकनीक।
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community ponds का निर्माण।
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कृषि पारिस्थितिकी की चुनौतियाँ
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पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान का समन्वय कम।
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छोटे और सीमांत किसानों के पास जलवायु–स्मार्ट तकनीक अपनाने की क्षमता सीमित।
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अनुसंधान उपलब्ध है परंतु extension services के अभाव में किसान तक पहुँचना कठिन।
भाग–3 : वैश्विक एवं भारतीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से निपटने की रणनीतियाँ और नीतिगत पहल
जलवायु परिवर्तन की चुनौती केवल किसी एक देश या क्षेत्र तक सीमित नहीं है। यह एक वैश्विक समस्या है, जिसके लिए वैश्विक सहयोग, सामूहिक प्रतिबद्धता और क्षेत्रीय–राष्ट्रीय स्तर की ठोस रणनीतियाँ आवश्यक हैं। संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, FAO, IPCC जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ जलवायु कार्रवाई में प्रमुख भूमिका निभा रही हैं। वहीं, भारत जैसे कृषि–प्रधान देश ने भी अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप नीतिगत ढाँचे और कार्यक्रम तैयार किए हैं।
1. वैश्विक स्तर पर पहल
(क) अंतर्राष्ट्रीय समझौते व संधियाँ
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क्योटो प्रोटोकॉल (1997)
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ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने का पहला वैश्विक प्रयास।
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विकसित देशों को बाध्यकारी लक्ष्य दिए गए।
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पेरिस समझौता (2015)
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औद्योगिक–पूर्व स्तर की तुलना में वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C से नीचे रखना और 1.5°C तक सीमित करने का प्रयास।
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सभी देशों को Nationally Determined Contributions (NDCs) प्रस्तुत करने की बाध्यता।
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कृषि, जल, ऊर्जा और जैव विविधता को अनुकूलन (adaptation) की प्राथमिकता।
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ग्लासगो जलवायु समझौता (COP-26, 2021)
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2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30% कमी।
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कोयले के प्रयोग को धीरे-धीरे घटाने का संकल्प।
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हरित ऊर्जा और जलवायु–स्मार्ट कृषि को बढ़ावा।
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(ख) अंतर्राष्ट्रीय संगठन और कार्यक्रम
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FAO का “Climate-Smart Agriculture” (CSA) फ्रेमवर्क
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उत्पादकता बढ़ाना,
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सहनशीलता (resilience) मजबूत करना,
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उत्सर्जन कम करना।
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विश्व बैंक की पहल
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कृषि–जलवायु नवाचार हेतु वित्तीय सहायता।
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अफ्रीका और एशिया में किसानों को तकनीकी सहयोग।
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IPCC रिपोर्ट्स
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समय-समय पर वैज्ञानिक आंकड़े और नीतिगत सुझाव।
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कृषि और खाद्य सुरक्षा पर विशेष अध्याय।
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(ग) वैश्विक स्तर पर जूट और allied fibres की भूमिका
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UNCTAD और FAO ने जूट व प्राकृतिक रेशों को “Green Industries” में शामिल किया।
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International Year of Natural Fibres (2009) मनाया गया, ताकि पर्यावरण–अनुकूल उद्योगों को बढ़ावा मिले।
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जलवायु–स्मार्ट कृषि में जूट का योगदान –
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कार्बन sequestration (जूट पौधे वायुमंडल से अधिक CO₂ अवशोषित करते हैं)।
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मिट्टी की उर्वरता सुधारते हैं।
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प्लास्टिक के विकल्प के रूप में पर्यावरण–अनुकूल उत्पाद।
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2. भारतीय स्तर पर पहल
भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कई व्यापक रणनीतियाँ अपनाई हैं।
(क) राष्ट्रीय कार्य योजना
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राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना (NAPCC, 2008)
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इसमें 8 राष्ट्रीय मिशन शामिल:
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राष्ट्रीय सौर मिशन
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राष्ट्रीय ऊर्जा दक्षता मिशन
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राष्ट्रीय जल मिशन
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राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (NMSA)
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राष्ट्रीय हरित भारत मिशन
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राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन ज्ञान मिशन
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राष्ट्रीय ऊर्जा मिशन
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राष्ट्रीय आवासीय मिशन
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इनमें से NMSA सीधे कृषि क्षेत्र को प्रभावित करता है।
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राज्य स्तरीय कार्य योजना (SAPCCs)
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प्रत्येक राज्य ने अपनी जलवायु परिस्थितियों के अनुसार कार्य योजना बनाई।
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उदाहरण: पश्चिम बंगाल और असम ने जूट क्षेत्र के लिए विशेष प्रावधान।
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(ख) कृषि क्षेत्र के लिए विशेष कार्यक्रम
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नेशनल इनोवेशन ऑन क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (NICRA, 2011)
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ICAR द्वारा संचालित।
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लक्ष्य:
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जलवायु–सहनशील किस्में विकसित करना।
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जल प्रबंधन तकनीक।
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किसानों को प्रशिक्षण।
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प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY)
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“हर खेत को पानी”।
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सूक्ष्म सिंचाई, ड्रिप और स्प्रिंकलर।
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मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना
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किसानों को मृदा परीक्षण और संतुलित उर्वरक उपयोग हेतु जानकारी।
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प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (PMFBY)
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जलवायु–जनित जोखिमों से किसानों की आय सुरक्षा।
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(ग) जूट और Allied Fibres पर विशेष पहल
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ICAR-CRIJAF (कोलकाता) के कार्यक्रम
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उन्नत किस्में: JRO 204, JBO 2003H आदि।
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“Ribbon retting” तकनीक का प्रचार।
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किसानों को प्रशिक्षण शिविर।
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राष्ट्रीय जूट बोर्ड (NJB)
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जूट उद्योग और उत्पादों को बढ़ावा।
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किसानों को बेहतर बीज व प्रशिक्षण।
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जूट आधारित value chain को मजबूत करना।
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प्लास्टिक प्रतिबंध नीति
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केंद्र और राज्य सरकारों ने सिंगल-यूज़ प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया।
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जूट बैग और allied fibres आधारित उत्पादों की मांग बढ़ी।
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3. शोध एवं प्रौद्योगिकी का योगदान
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नई किस्में
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सूखा और बाढ़ सहनशील फसलें।
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जूट और रैमी जैसी फसलों में रोग प्रतिरोधक किस्में।
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डिजिटल कृषि (Digital Agriculture)
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रिमोट सेंसिंग, GIS, ड्रोन तकनीक से फसल की निगरानी।
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मौसम पूर्वानुमान आधारित निर्णय।
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बायोटेक्नोलॉजी
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CRISPR जैसी gene-editing तकनीक से जलवायु–स्मार्ट पौधे।
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सूक्ष्मजीव आधारित उर्वरक और रेटिंग तकनीक।
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नवीकरणीय ऊर्जा का प्रयोग
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सौर पंप, बायोगैस संयंत्र।
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ऊर्जा पर निर्भरता घटाना।
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4. चुनौतियाँ
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वित्तीय संसाधनों की कमी
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छोटे किसानों तक योजनाएँ पहुँचाना कठिन।
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तकनीक का सीमित प्रयोग
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ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल divide।
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नीतिगत खामियाँ
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योजनाओं का overlap, समन्वय की कमी।
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किसानों की जागरूकता
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कई किसान अब भी पारंपरिक पद्धति पर निर्भर।
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5. आगे की दिशा
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किसानों को जलवायु–स्मार्ट कृषि की ट्रेनिंग।
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अनुसंधान संस्थानों और किसानों का सीधा संवाद।
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जूट और allied fibres को “Strategic Crops” का दर्जा देना।
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पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) से value chain मजबूत करना।
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ग्रामीण स्तर पर जलवायु बीमा और माइक्रो-क्रेडिट सुविधा।
भाग–4 : जलवायु–स्मार्ट कृषि तकनीक, नवाचार और जूट/सहायक रेशों की संभावनाएँ
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियाँ इतनी व्यापक हैं कि केवल पारंपरिक उपाय पर्याप्त नहीं हैं। हमें नवाचार, वैज्ञानिक अनुसंधान और जलवायु–स्मार्ट कृषि तकनीकों को अपनाना होगा। विशेषकर जूट और allied fibres जैसी फसलें, जिनका महत्व पर्यावरणीय दृष्टि से लगातार बढ़ रहा है, इस संदर्भ में और भी प्रासंगिक हो जाती हैं।
यह भाग इस प्रश्न का उत्तर खोजता है – हम किस प्रकार ऐसी तकनीकें और रणनीतियाँ विकसित करें, जो एक ओर जलवायु परिवर्तन से निपटें और दूसरी ओर कृषि को टिकाऊ व लाभकारी बनाएँ?
1. जलवायु–स्मार्ट कृषि (Climate-Smart Agriculture – CSA)
FAO द्वारा दी गई CSA की अवधारणा तीन स्तंभों पर आधारित है:
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उत्पादकता बढ़ाना – ताकि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हो।
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लचीलापन (Resilience) बढ़ाना – यानी किसान जलवायु झटकों से जल्दी उबर सके।
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उत्सर्जन घटाना – ग्रीनहाउस गैसों को कम करना।
2. प्रमुख तकनीकें और नवाचार
(क) फसल प्रबंधन तकनीक
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जलवायु–सहनशील किस्में
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सूखा सहनशील धान, हीट टॉलरेंट गेहूँ।
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जूट की उन्नत किस्में: JRO 204, JBO 2003H, जो रोग–प्रतिरोधक और बेहतर गुणवत्ता वाली हैं।
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फसल विविधीकरण
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धान–गेहूँ चक्र की जगह Jute–Rice–Pulses प्रणाली अपनाना।
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इससे मिट्टी का पोषण, किसानों की आय और जल उपयोग दक्षता बढ़ती है।
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समेकित खेती प्रणाली (Integrated Farming System – IFS)
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कृषि + पशुपालन + मत्स्य पालन + रेशा फसलें।
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किसानों की आय विविध और स्थिर।
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(ख) मृदा एवं जल प्रबंधन
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मृदा स्वास्थ्य सुधार
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जैविक खाद, ग्रीन मैन्योर।
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जूट की पत्तियाँ और डंठल स्वयं भी कार्बनिक पदार्थ के रूप में मृदा सुधारते हैं।
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सूक्ष्म सिंचाई
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ड्रिप और स्प्रिंकलर प्रणाली।
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वर्षा जल संचयन और recharge संरचनाएँ।
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डिजिटल जल प्रबंधन
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सेंसर आधारित सिंचाई (soil moisture sensors)।
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रिमोट सेंसिंग से जल उपयोग का आकलन।
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(ग) प्रौद्योगिकी आधारित समाधान
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ड्रोन और रिमोट सेंसिंग
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फसल स्वास्थ्य, रोग और कीट की निगरानी।
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उर्वरक और कीटनाशक का सटीक छिड़काव।
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मोबाइल एप और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म
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किसानों को मौसम पूर्वानुमान, मंडी भाव और कृषि परामर्श।
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“Kisan Call Centre” और “mKisan Portal” जैसे मंच।
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बायोटेक्नोलॉजी और जीन एडिटिंग
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CRISPR तकनीक से रोग–प्रतिरोधक किस्में।
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जूट में बेहतर रेशा गुणवत्ता हेतु molecular breeding।
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3. जूट एवं सहायक रेशों की विशेष संभावनाएँ
(क) पर्यावरणीय दृष्टि से
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जूट पौधे उच्च कार्बन अवशोषण (Carbon Sequestration) क्षमता रखते हैं।
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एक हेक्टेयर जूट फसल औसतन 15–20 टन CO₂ अवशोषित करती है और लगभग 11–12 टन O₂ उत्सर्जित करती है।
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यह वैश्विक तापमान वृद्धि को रोकने में सहायक है।
(ख) आर्थिक दृष्टि से
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जूट और allied fibres की मांग प्लास्टिक प्रतिबंध नीति के बाद तेजी से बढ़ी है।
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जूट बैग, जूट जियो–टेक्सटाइल्स, जूट–प्लास्टिक कंपोज़िट्स जैसे उत्पाद अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लोकप्रिय।
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किसानों को नकदी फसल के रूप में स्थिर आय।
(ग) सामाजिक दृष्टि से
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पूर्वी भारत और बांग्लादेश के करोड़ों छोटे किसानों और मजदूरों की आजीविका का आधार।
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ग्रामीण उद्योग और महिला स्व–सहायता समूहों के लिए अवसर।
(घ) अनुसंधान और नवाचार
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Ribbon retting तकनीक – कम पानी में उच्च गुणवत्ता।
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Microbial retting – विशेष सूक्ष्मजीवों से रेशा मजबूत व मुलायम।
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Value Addition Research – जूट आधारित पैनल, बोर्ड, बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग।
4. जलवायु–स्मार्ट जूट आधारित प्रणाली
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Jute-Rice-Pulses Cropping System
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मिट्टी की उर्वरता, नाइट्रोजन फिक्सेशन और किसानों की आय में वृद्धि।
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Jute-based Agroforestry
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पेड़ + जूट + सब्जी।
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कार्बन sequestration और आय विविधता।
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जूट जियो–टेक्सटाइल्स
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सड़क निर्माण, नदी तट संरक्षण और मिट्टी संरक्षण में प्रयोग।
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मिट्टी का कटाव रोकना और भूमि को उपजाऊ बनाए रखना।
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5. सफल उदाहरण
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ICAR-CRIJAF, बैरकपुर
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किसानों के लिए “Frontline Demonstration” कार्यक्रम।
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जूट किसानों की उत्पादकता 20–25% तक बढ़ी।
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बांग्लादेश
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जूट से value added products (जूट-डेनिम, जूट-कंपोज़िट्स)।
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निर्यात आय में वृद्धि।
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असम और पश्चिम बंगाल
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Ribbon retting अपनाने वाले किसानों ने 15–20% बेहतर मूल्य प्राप्त किया।
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6. चुनौतियाँ और सीमाएँ
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तकनीक का सीमित प्रसार – अभी भी अधिकांश किसान पारंपरिक retting पद्धति पर निर्भर।
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बाजार की अनिश्चितता – जूट उत्पादों की मांग और कीमत स्थिर नहीं रहती।
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वित्तीय संसाधनों की कमी – छोटे किसानों के लिए मशीनरी या तकनीक महँगी।
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अनुसंधान–किसान अंतराल – शोध उपलब्ध है पर किसान तक पहुँचने में समय लगता है।
7. आगे की संभावनाएँ
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क्लाइमेट–रेजिलिएंट जूट किस्मों का विकास।
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जूट और allied fibres को “Climate Action Crops” घोषित करना।
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नवाचार आधारित स्टार्टअप्स – जूट आधारित पैकेजिंग, बायो–प्लास्टिक विकल्प।
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अंतर्राष्ट्रीय सहयोग – भारत–बांग्लादेश मिलकर जूट तकनीक और बाजार का विकास करें।
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किसानों को प्रशिक्षण और वित्तीय सहायता – ताकि वे नई तकनीक अपनाएँ।
निष्कर्ष (भाग–4 का सार)
जलवायु–स्मार्ट कृषि केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि भविष्य की अनिवार्यता है। इसमें फसल विविधीकरण, जल और मृदा प्रबंधन, डिजिटल तकनीक और बायोटेक्नोलॉजी की महत्वपूर्ण भूमिका है।
जूट और allied fibres इस परिवर्तन में “Green Champions” की तरह हैं। ये न केवल पर्यावरण–अनुकूल हैं, बल्कि किसानों की आय बढ़ाने और वैश्विक स्तर पर टिकाऊ विकास (Sustainable Development Goals) हासिल करने में भी सहायक हैं।
यदि अनुसंधान, नीति और किसानों की सहभागिता को सही दिशा दी जाए तो जूट क्षेत्र भारत और विश्व के लिए जलवायु परिवर्तन का समाधान साबित हो सकता है।
भाग–5 : समग्र निष्कर्ष, भविष्य की राह और नीति–सुझाव
1. प्रस्तावना
जलवायु परिवर्तन अब भविष्य की समस्या नहीं, बल्कि वर्तमान की कठोर सच्चाई है। कृषि, जो मानव सभ्यता की नींव है, सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र है। इस निबंध के पूर्व भागों में हमने देखा कि किस प्रकार:
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तापमान और वर्षा पैटर्न में बदलाव,
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ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन,
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जैव विविधता की हानि,
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और सामाजिक–आर्थिक असमानताएँ
वैश्विक कृषि व्यवस्था को गंभीर चुनौती देती हैं। साथ ही हमने यह भी समझा कि जलवायु–स्मार्ट कृषि तकनीकें, जूट एवं सहायक रेशों जैसी पर्यावरण–अनुकूल फसलें और नवाचार इन चुनौतियों का समाधान प्रस्तुत करते हैं।
2. समग्र निष्कर्ष
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वैश्विक खतरा, स्थानीय प्रभाव
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जलवायु परिवर्तन का असर वैश्विक स्तर पर है, परंतु इसके प्रभाव स्थानीय स्तर पर भिन्न–भिन्न रूप में सामने आते हैं।
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उदाहरण: अफ्रीका में सूखा, दक्षिण एशिया में बाढ़, लैटिन अमेरिका में तूफान।
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कृषि सबसे अधिक संवेदनशील क्षेत्र
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उत्पादन घटता है, लागत बढ़ती है और किसान की आय अस्थिर होती है।
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खाद्य सुरक्षा और पोषण संकट बढ़ने का खतरा।
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जूट और सहायक रेशों की भूमिका
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उच्च कार्बन अवशोषण और ऑक्सीजन उत्सर्जन क्षमता।
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टिकाऊ उद्योग, ग्रामीण रोजगार और महिला सशक्तिकरण का माध्यम।
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प्लास्टिक पर निर्भरता घटाकर हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा।
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तकनीक और नीति का महत्व
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केवल वैज्ञानिक अनुसंधान पर्याप्त नहीं है।
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इसे नीति, बाजार, वित्त और किसानों की सहभागिता से जोड़ना आवश्यक है।
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3. भविष्य की राह
(क) अनुसंधान और नवाचार
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क्लाइमेट रेजिलिएंट फसलें – सूखा, बाढ़ और रोग–प्रतिरोधक किस्में।
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बायोटेक्नोलॉजी और डिजिटल एग्रीकल्चर – CRISPR, AI, IoT, ड्रोन आधारित समाधान।
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जूट टेक्नोलॉजी – microbial retting, जूट–कंपोज़िट्स, जियो–टेक्सटाइल्स।
(ख) नीतिगत सुधार
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कृषि बीमा और वित्तीय सुरक्षा – किसानों को जलवायु झटकों से बचाने के लिए।
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कार्बन क्रेडिट नीति – जूट जैसी फसलों को Carbon Neutral Crops घोषित कर लाभ दिलाना।
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प्लास्टिक प्रतिबंध और जूट प्रोत्साहन – कानूनी और आर्थिक प्रोत्साहन।
(ग) किसानों की क्षमता निर्माण
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प्रशिक्षण और विस्तार सेवाएँ – तकनीक अपनाने हेतु।
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डिजिटल साक्षरता – मोबाइल एप, ई–मार्केट और मौसम सूचना का उपयोग।
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महिला और युवाओं की भागीदारी – नवाचार और स्टार्टअप्स में।
(घ) वैश्विक सहयोग
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भारत–बांग्लादेश जूट मिशन – अनुसंधान, उद्योग और निर्यात को साझा रूप से बढ़ावा।
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अंतर्राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्रों से सहयोग – जलवायु–स्मार्ट तकनीक विकास।
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संयुक्त राष्ट्र SDGs से समन्वय – विशेषकर SDG–2 (Zero Hunger) और SDG–13 (Climate Action)।
4. नीति–सुझाव
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जूट और allied fibres को “Climate Action Crops” का दर्जा दिया जाए।
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इसके लिए विशेष प्रोत्साहन पैकेज और सब्सिडी योजना बने।
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किसानों के लिए कार्बन क्रेडिट बाज़ार उपलब्ध कराया जाए।
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जितना कार्बन अवशोषण, उतनी आय का अवसर।
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जलवायु–स्मार्ट कृषि मिशन का गठन।
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फसल विविधीकरण, डिजिटल तकनीक और मृदा–जल संरक्षण पर आधारित।
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जूट उद्योग को MSME और स्टार्टअप इकोसिस्टम से जोड़ा जाए।
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ताकि ग्रामीण स्तर पर मूल्य संवर्धन और रोजगार सृजन हो।
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अनुसंधान और किसान के बीच की दूरी घटाने के लिए विशेष तंत्र।
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ICAR–KVK नेटवर्क को और मजबूत बनाना।
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5. समापन विचार
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विज्ञान, नवाचार और नीति का समन्वय।
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किसानों की भागीदारी और सशक्तिकरण।
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जूट और प्राकृतिक रेशों जैसी टिकाऊ फसलों को प्राथमिकता।
यदि विश्व समुदाय इस दिशा में ठोस कदम उठाए, तो न केवल कृषि सुरक्षित होगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक हरित, स्वस्थ और टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित होगा।