Sunday, June 8, 2025

क्या राष्ट्र की संपत्तियों की बिक्री देशभक्ति के मूल्यों से धोखा नहीं है?

 


"मैं नास्तिक हूँ, फिर भी अगर मुझे मोक्ष की कोई इच्छा है, तो वह केवल मेरे देशवासियों के लिए है।" – शहीद भगत सिंह

जब हम आज़ादी के 77 साल बाद पीछे मुड़कर देखते हैं, तो हमारे सामने एक सवाल खड़ा होता है – क्या आज़ादी के नायकों ने जिस स्वराज और समावेशी भारत का सपना देखा था, क्या हम उस रास्ते पर चल रहे हैं? क्या देश की सार्वजनिक संपत्तियाँ – रेल, कोयला, तेल, टेलीकॉम, बीमा, बैंकों जैसी संस्थाएं – जिन्हें दशकों की मेहनत और टैक्स के पैसे से खड़ा किया गया था, उन्हें कुछ गिने-चुने पूंजीपतियों के हाथों सौंप देना राष्ट्र के करोड़ों नागरिकों के साथ एक प्रकार का धोखा नहीं है?


🔍 सवाल जो हर जागरूक नागरिक को पूछना चाहिए:

  1. संपत्ति किसकी थी?
    ये संपत्तियाँ केवल ईंट और सीमेंट की इमारतें नहीं थीं। ये भारत की आम जनता के श्रम, टैक्स और समर्पण से बनी थीं। वे ट्रेनें जिनमें करोड़ों लोग सफर करते हैं, वो टेलीकॉम सिस्टम जो गाँव-गाँव तक संवाद पहुँचाता है, वो बैंकिंग प्रणाली जो गरीब से गरीब को सेविंग्स की आदत सिखाती है – ये सब किसी सरकार की जागीर नहीं थीं, ये "जनता की संपत्ति" थीं।

  2. बिक्री किसे और क्यों?
    जब देश की सबसे मुनाफेदार कंपनियों को घाटे का हवाला देकर या 'बेजान' बताकर कौड़ियों के दाम में निजी हाथों में सौंपा जाता है, और वह भी उन्हीं उद्योगपतियों को जो राजनीतिक चंदा देते हैं, तो यह सिर्फ आर्थिक नीति नहीं, बल्कि नैतिक दिवालियापन की निशानी है।

  3. लोकतंत्र बनाम पूंजीतंत्र
    क्या लोकतंत्र में सरकार का काम जनता के अधिकारों की रक्षा करना नहीं है? लेकिन जब नीति बनती है चंद कंपनियों को ध्यान में रखकर, तो यह “लोकतंत्र” से “कॉरपोरेटतंत्र” में बदलता हुआ भारत दिखता है।


🛑 क्या भगत सिंह, आज़ाद, नेताजी, बापू ने इसी भारत का सपना देखा था?

शहीद भगत सिंह ने जब 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा दिया था, तो उसका अर्थ केवल अंग्रेजों को भगाना नहीं था। वे एक ऐसे भारत की कल्पना करते थे जहाँ सामाजिक न्याय, आर्थिक बराबरी और जनकल्याण सर्वोपरि हो। उनके विचारों में वर्गहीन समाज की बात होती थी, जहाँ मेहनतकश लोगों का शोषण न हो। क्या उस सपने को चंद हाथों में राष्ट्रीय संसाधनों को सौंपकर हम जिंदा रख रहे हैं?


⚖️ यह विकास नहीं, दिशाविहीनता है

सरकारें यह कहती हैं कि 'निजीकरण' विकास की कुंजी है। हाँ, निजी क्षेत्र का योगदान जरूरी है, लेकिन जब हर क्षेत्र – शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, संचार, ऊर्जा – निजी हाथों में चला जाए, तब आम नागरिक का क्या होगा? क्या हर सेवा लाभ के तराजू पर तौली जाएगी?


🙏 हमें क्या करना चाहिए?

  1. जागरूक बनिए: समझिए कि किस नीति का क्या असर पड़ेगा – छोटे किसान, कर्मचारी, बेरोज़गार युवा, आम उपभोक्ता पर।

  2. प्रश्न पूछिए: यह हमारा संवैधानिक अधिकार है कि हम सरकार से जवाब माँगें – संसद, मीडिया, सोशल मीडिया और जन मंचों पर।

  3. जन संपत्तियों का संरक्षण करें: इन्हें बचाना राष्ट्र सेवा है, इन्हें बेचना नहीं।


अंत में एक सवाल छोड़ रहा हूँ –
जब अगली बार आप ट्रेन में सफर करेंगे, सरकारी अस्पताल में इलाज कराएंगे या किसी डाकघर से मनीऑर्डर भेजेंगे, तो क्या वह सुविधा अब भी जनता की होगी? या कोई 'प्राइवेट लिमिटेड' कंपनी की?

कृपया सोचिए – भगत सिंह के सपनों का भारत ऐसा था क्या?


✍️ लेखक: एक चिंतक नागरिक

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