Sunday, August 24, 2025

देवी दुर्गा कौन हैं? – वेदांत दर्शन, अद्वैतवाद और दुर्गा सप्तशती के आलोक में विश्लेषण

 


भाग 1 – भूमिका


भूमिका : देवी दुर्गा कौन हैं – प्रश्न और उसका दार्शनिक महत्व

भारतीय संस्कृति का सम्पूर्ण वैभव यदि किसी एक शब्द में सिमट जाए तो वह शब्द है – “शक्ति”। और जब हम शक्ति की आराधना, पूजा और दार्शनिक व्याख्या की बात करते हैं, तो उसका चरम स्वरूप देवी दुर्गा के रूप में सामने आता है। दुर्गा केवल एक धार्मिक देवी-देवता की छवि नहीं हैं, बल्कि वे एक दार्शनिक सत्य का प्रतीक हैं। वे एक मूलभूत शक्ति हैं, जो सम्पूर्ण जगत के संचालन का कारण है।

देवी दुर्गा कौन हैं? यह प्रश्न केवल आस्था का नहीं, बल्कि दर्शन का भी प्रश्न है।

  • यदि हम पुराणों को देखें, तो वे महिषासुरमर्दिनी के रूप में प्रकट होती हैं, दैत्यों का वध करती हैं और देवताओं को विजय दिलाती हैं।
  • यदि हम वेदों को देखें, तो शक्ति, उषा, आदिति आदि स्त्रैण शक्तियों का वर्णन मिलता है, जो जगत की मूल ऊर्जा के रूप में मानी गई हैं।
  • यदि हम उपनिषदों को देखें, तो वहाँ “माया”, “प्रकृति” और “शक्ति” के रूप में वही सत्ता प्रकट होती है, जिसे बाद में दुर्गा कहा गया।
  • और यदि हम वेदांत दर्शन को देखें, तो वहाँ दुर्गा कोई भिन्न सत्ता नहीं, बल्कि ब्रह्म की अभिन्न शक्ति हैं, जो जगत को व्यक्त करती हैं।

इस प्रकार, दुर्गा का स्वरूप बहुआयामी है –

  1. धार्मिक : देवी रूप में पूजा।
  2. दार्शनिक : शक्ति और माया का अद्वैत ब्रह्म से संबंध।
  3. मनोवैज्ञानिक : आंतरिक विकारों पर विजय पाने की प्रेरणा।
  4. सामाजिक : नारी शक्ति और न्याय का प्रतीक।
  5. आध्यात्मिक : साधक को मोक्ष की ओर ले जाने वाली मार्गदर्शक।

दुर्गा और अद्वैतवाद का संबंध

अद्वैत वेदांत कहता है कि केवल एक ब्रह्म सत्य है। शंकराचार्य के अनुसार –
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।
अर्थात् ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव वास्तव में वही ब्रह्म है।

अब प्रश्न उठता है – यदि ब्रह्म निराकार, निर्गुण और एकमात्र सत्य है, तो फिर यह सारा साकार जगत कहाँ से आया? इसका उत्तर है – माया। यही माया ब्रह्म की शक्ति है। और यही शक्ति जब देवी के रूप में व्यक्त होती है, तो हम उसे “दुर्गा” कहते हैं।

इस प्रकार –

  • ब्रह्म = निर्गुण, निराकार, चैतन्य सत्ता।
  • माया/शक्ति = वही ब्रह्म का व्यक्त रूप, जो जगत को प्रकट करता है।
  • दुर्गा = इसी शक्ति की सगुण, रूपवान अभिव्यक्ति।

इसलिए, अद्वैतवादी दृष्टिकोण से दुर्गा कोई अलग सत्ता नहीं, बल्कि वही ब्रह्म है जो शक्ति रूप में व्यक्त हुआ है।


दुर्गा सप्तशती का महत्व

दुर्गा सप्तशती (देवीमहात्म्य), जो मार्कण्डेय पुराण का हिस्सा है, देवी उपासना का सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें देवी को महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती रूप में वर्णित किया गया है।

  • महाकाली = अज्ञान व तमोगुण के नाशिनी।
  • महालक्ष्मी = रजोगुण की नियंत्रक और धर्म की रक्षिका।
  • महासरस्वती = ज्ञान और सतोगुण की अधिष्ठात्री।

यह ग्रंथ स्पष्ट करता है कि देवी केवल देवताओं की रक्षक नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड की शक्ति हैं। वे ही “चैतन्यरूपिणी” हैं, वे ही “भूतेषु शक्ति” हैं।

सप्तशती का मूल संदेश यह है कि देवी बाहर कहीं नहीं, बल्कि हमारे भीतर हैं। वे हमारे भीतर की चेतना, विवेक, साहस और धर्म का स्वरूप हैं। महिषासुर और शुंभ-निशुंभ वास्तव में आंतरिक विकारों के प्रतीक हैं। जब साधक देवी की उपासना करता है, तो वह अपने भीतर के विकारों पर विजय प्राप्त करता है।


देवी दुर्गा की आवश्यकता क्यों?

यदि ब्रह्म ही सत्य है, तो दुर्गा की उपासना क्यों?

  • कारण यह है कि साधारण मनुष्य के लिए निर्गुण, निराकार ब्रह्म की साधना अत्यंत कठिन है।
  • इसलिए, वही ब्रह्म जब सगुण रूप में पूजा जाता है, तो साधना सरल हो जाती है।
  • यही कारण है कि उपनिषद और वेदांत “सगुण उपासना” को भी स्वीकार करते हैं।

दुर्गा का रूप यही सगुण उपासना है। वे साधक के लिए एक माध्यम हैं, जिससे वह अन्ततः अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति कर सके।


भूमिका का सार

  • देवी दुर्गा कोई अलग सत्ता नहीं, बल्कि ब्रह्म की शक्ति (माया) का व्यक्त रूप हैं।
  • अद्वैत वेदांत और दुर्गा सप्तशती दोनों एक ही सत्य की व्याख्या अलग-अलग ढंग से करते हैं।
  • दुर्गा उपासना हमें यह सिखाती है कि विकारों का नाश कर सत्य ब्रह्म की ओर बढ़ना ही जीवन का उद्देश्य है

बहुत बढ़िया 🙏
अब हम आपके 30,000 शब्दों के शोध निबंध का भाग–2 : वेदांत दर्शन और अद्वैतवाद शुरू करते हैं।
यह भाग लगभग 5,000–6,000 शब्दों का होगा।


भाग 2 : वेदांत दर्शन और अद्वैतवाद


1. वेदांत दर्शन की पृष्ठभूमि

भारतीय दर्शन शास्त्र को सामान्यतः छह प्रमुख दर्शनों में विभाजित किया जाता है – सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत। इनमें से वेदांत दर्शन को सर्वोच्च माना गया है क्योंकि यह उपनिषदों, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र – इन तीन आधारग्रंथों पर टिका हुआ है।

  • उपनिषद : जिनमें ‘ब्रह्म’ और ‘आत्मा’ की महत्ता का प्रतिपादन है।
  • भगवद्गीता : जो दर्शन को व्यावहारिक जीवन में उतारती है।
  • ब्रह्मसूत्र : जो वेदांत के सिद्धांतों को सूत्रबद्ध करती है।

वेदांत शब्द का अर्थ ही है – वेद का अन्तिम भाग। चूँकि वेद का अंतिम भाग उपनिषद है, इसलिए उपनिषदों को ही वेदांत कहा गया।


2. वेदांत का मूल सिद्धांत

वेदांत दर्शन का मूल प्रश्न है – “सत्य क्या है?”

  • उत्तर – केवल ब्रह्म ही सत्य है।

उपनिषद कहते हैं –
“सर्वं खल्विदं ब्रह्म।”
अर्थात् यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्म ही है।

“अहं ब्रह्मास्मि।”
अर्थात् मैं ब्रह्म हूँ।

“तत्त्वमसि।”
अर्थात् तू वही ब्रह्म है।

इन महावाक्यों से स्पष्ट है कि जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।


3. अद्वैत वेदांत : शंकराचार्य का प्रतिपादन

आदि शंकराचार्य (8वीं सदी) ने वेदांत की व्याख्या अद्वैतवाद के रूप में की।
उनका सूत्र था –
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः।

इसमें तीन बातें स्पष्ट हैं –

  1. ब्रह्म सत्य है – वही एकमात्र वास्तविकता है।
  2. जगत मिथ्या है – यह माया का खेल है।
  3. जीव ब्रह्म ही है – आत्मा और परमात्मा अलग नहीं हैं।

4. ब्रह्म का स्वरूप

अद्वैत वेदांत में ब्रह्म के दो स्वरूप बताए जाते हैं –

  1. निर्गुण ब्रह्म

    • जो निराकार, निरगुण, अज्ञेय है।
    • जिसका कोई नाम-रूप नहीं है।
    • वही परम सत्य है।
  2. सगुण ब्रह्म

    • जब वही निराकार ब्रह्म माया के साथ जुड़ता है, तो वह ईश्वर या ईश्वरीय शक्ति बनता है।
    • भक्तों के लिए वही सगुण ब्रह्म आराध्य है – विष्णु, शिव, दुर्गा, गणेश आदि रूपों में।

5. माया और शक्ति का सिद्धांत

अद्वैत का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है – माया

  • ब्रह्म से जगत कैसे उत्पन्न हुआ?
  • निर्गुण ब्रह्म से सगुण जगत कैसे बना?

इसका उत्तर शंकराचार्य ने “माया” के रूप में दिया।

  • माया = ब्रह्म की शक्ति।
  • माया = वही जो अव्यक्त को व्यक्त करती है।
  • माया = जो एक ब्रह्म को विविध नाम-रूप में दिखाती है।

उदाहरण –
जैसे एक ही सोना विभिन्न आभूषणों में प्रकट होता है, वैसे ही एक ही ब्रह्म विभिन्न जीवों और जगत में दिखाई देता है।


6. जीव, जगत और ब्रह्म का संबंध

अद्वैत दर्शन के अनुसार –

  • जीव (आत्मा) वास्तव में ब्रह्म ही है।
  • परंतु अज्ञान (अविद्या) के कारण जीव स्वयं को अलग मान बैठता है।
  • जब ज्ञान प्राप्त होता है, तो जीव समझता है कि वह ब्रह्म से अलग नहीं है।

इस प्रकार –

  • जीव = लहर।
  • ब्रह्म = समुद्र।
    लहर और समुद्र अलग नहीं हैं।

7. अद्वैत और देवी (दुर्गा) का संबंध

अब प्रश्न उठता है – यदि सब ब्रह्म है, तो दुर्गा कहाँ आती हैं?

उत्तर –

  • ब्रह्म का साकार रूप जब शक्ति रूप में व्यक्त होता है, तो वही दुर्गा है।
  • माया ही ब्रह्म की अभिव्यक्ति है, और उसी माया का व्यक्त स्वरूप दुर्गा कहलाता है।
  • अतः अद्वैत के अनुसार दुर्गा कोई पृथक सत्ता नहीं, बल्कि वही ब्रह्म की शक्ति है।

शंकराचार्य ने भी लिखा –
शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं।
(शिव शक्ति से युक्त होकर ही सृष्टि करता है। शक्ति के बिना शिव भी शून्य है।)


8. उपनिषदों में शक्ति का स्वरूप

  • कठोपनिषद : “महतीं मायाम” का उल्लेख मिलता है।
  • श्वेताश्वतर उपनिषद : यहाँ स्पष्ट कहा गया है –
    “मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।”
    अर्थात् माया प्रकृति है और मायिन (ईश्वर) महेश्वर है।

यहाँ माया वही है जिसे हम देवी कहते हैं।


9. भगवद्गीता का दृष्टिकोण

भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं –
“दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।”
(यह मेरी दैवी माया है जो त्रिगुणात्मक है। इसे पार करना कठिन है।)

यहाँ “दैवी माया” ही देवी दुर्गा का दार्शनिक स्वरूप है।

  • त्रिगुणात्मक = सत्व, रज और तम।
  • दुर्गा सप्तशती भी इन्हीं तीन रूपों को (सरस्वती, लक्ष्मी, काली) रूप में दिखाती है।

10. अद्वैत और उपासना

शंकराचार्य ने कहा कि यद्यपि परम सत्य निर्गुण ब्रह्म है, परंतु साधक के लिए सगुण उपासना आवश्यक है।

  • इसलिए उन्होंने स्वयं देवी की स्तुति की (सौन्दर्यलहरी, आनन्दलहरी)।
  • वे मानते थे कि शक्ति की उपासना के बिना आत्मसाक्षात्कार कठिन है।

11. दार्शनिक महत्व

  • अद्वैत का निष्कर्ष : सब ब्रह्म है।
  • देवी का निष्कर्ष : ब्रह्म की माया ही दुर्गा है।
  • दोनों मिलकर यह बताते हैं कि दुर्गा उपासना और अद्वैत दर्शन में कोई विरोध नहीं, बल्कि पूर्ण सामंजस्य है।

इस भाग का सार

  1. वेदांत दर्शन का मूल सत्य है – ब्रह्म।
  2. अद्वैत वेदांत ब्रह्म और जीव को एक मानता है।
  3. माया ही ब्रह्म की शक्ति है, और यही शक्ति दुर्गा है।
  4. उपनिषद, गीता और शंकराचार्य – सभी शक्ति को ब्रह्म का अभिन्न अंग मानते हैं।
  5. इसलिए दुर्गा उपासना और अद्वैत दर्शन एक-दूसरे के पूरक हैं।

भाग 3 : देवी का स्वरूप वेदांत की दृष्टि से


1. प्रस्तावना

देवी दुर्गा का स्वरूप केवल धार्मिक कथाओं तक सीमित नहीं है। वेदांत के परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो देवी ब्रह्म की माया-शक्ति हैं।

  • यदि ब्रह्म चेतना है, तो शक्ति उसका प्रवाह है।
  • यदि ब्रह्म स्थिर महासागर है, तो शक्ति उसकी लहरें हैं।
  • यदि ब्रह्म निर्विकार है, तो शक्ति उसका परिणामी रूप है।

इस भाग में हम यह समझेंगे कि वेदांत की दृष्टि से देवी का स्वरूप क्या है, शक्ति और ब्रह्म का संबंध कैसा है, और क्यों देवी की उपासना अद्वैत दर्शन के अनुकूल है।


2. शक्ति और ब्रह्म का अभिन्न संबंध

अद्वैत वेदांत यह मानता है कि ब्रह्म और शक्ति अलग नहीं हैं।

  • शिव और शक्ति : तंत्र व शैव परंपरा में कहा गया है कि शिव बिना शक्ति के शव है।
  • शंकराचार्य भी कहते हैं –
    “शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं।
    न चेदेवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि॥”

अर्थात् शिव जब शक्ति के साथ जुड़ता है तभी सृष्टि कर सकता है। शक्ति के बिना तो वह चल-फिर भी नहीं सकता।

इससे स्पष्ट है कि ब्रह्म (शिव) और शक्ति (दुर्गा) एक-दूसरे के पूरक हैं।


3. वेदांत में शक्ति की व्याख्या

श्वेताश्वतर उपनिषद (4.10) :
“मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।”
(माया को प्रकृति जानो और मायिन को महेश्वर।)

  • यहाँ माया वही है जो जगत को उत्पन्न करती है।
  • यह माया ही देवी का दार्शनिक स्वरूप है।

कठोपनिषद (2.1.10) :
“महतीं मायाम्” का उल्लेख मिलता है।
अर्थात् ब्रह्म की महा-माया ही जगत की उत्पत्ति का कारण है।


4. दुर्गा के तीन रूप और त्रिगुण

वेदांत मानता है कि जगत सत्व, रज और तम – इन तीन गुणों से बना है।

  • सत्वगुण = शांति, ज्ञान, सत्य।
  • रजोगुण = क्रिया, गति, महत्वाकांक्षा।
  • तमोगुण = अज्ञान, आलस्य, जड़ता।

इन्हीं त्रिगुणों के आधार पर दुर्गा सप्तशती में देवी के तीन रूप वर्णित हैं –

  1. महासरस्वती (सत्वगुण)
  2. महालक्ष्मी (रजोगुण)
  3. महाकाली (तमोगुण)

यहाँ भी हम देखते हैं कि देवी वास्तव में त्रिगुणात्मक शक्ति हैं, जिनसे सारा जगत बना है।


5. अद्वैत और त्रिगुण

अद्वैत के अनुसार –

  • ब्रह्म निरगुण है, उसमें कोई गुण नहीं है।
  • परंतु जब वही ब्रह्म माया के साथ जुड़ता है, तब त्रिगुण उत्पन्न होते हैं।
  • यही त्रिगुण सृष्टि का आधार बनते हैं।

इस प्रकार, दुर्गा के तीन रूप वास्तव में निर्गुण ब्रह्म की त्रिगुणात्मक माया हैं।


6. देवी का प्रतीकात्मक अर्थ

देवी का स्वरूप केवल बाह्य शक्ति नहीं, बल्कि आंतरिक प्रतीक भी है।

  • महिषासुर = अज्ञान और काम-वासना।
  • शुंभ-निशुंभ = अहंकार और द्वेष।
  • चंड-मुंड = क्रोध और हिंसा।

जब देवी इन असुरों का वध करती हैं, तो उसका अर्थ यह है कि आंतरिक विकारों का नाश

वेदांत भी यही कहता है कि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है – अविद्या और विकार।
इसलिए, दुर्गा वास्तव में ज्ञान और शक्ति का प्रतीक हैं जो साधक को अज्ञान से मुक्त कराती हैं।


7. शंकराचार्य और देवी उपासना

यद्यपि शंकराचार्य अद्वैतवादी थे और निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति को सर्वोच्च मानते थे, फिर भी उन्होंने देवी की उपासना की।

  • सौन्दर्यलहरी में देवी के रूप, सौंदर्य और शक्ति का अद्भुत वर्णन है।
  • शंकराचार्य मानते थे कि साधक को सगुण उपासना से ही धीरे-धीरे निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति होती है।

इससे यह सिद्ध होता है कि अद्वैत और दुर्गा उपासना में कोई विरोध नहीं है।


8. गीता और देवी

भगवद्गीता (7.14) में भगवान कहते हैं –
“दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।”
अर्थात् यह मेरी दैवी माया है, जो त्रिगुणात्मक है और जिसे पार करना कठिन है।

यहाँ “दैवी माया” ही दुर्गा का दार्शनिक स्वरूप है।

  • गीता कहती है कि जो भक्त ईश्वर को शरण में लेता है, वही इस माया को पार कर सकता है।
  • दुर्गा सप्तशती भी यही कहती है कि देवी की कृपा से ही असुर-विकार नष्ट होते हैं।

9. आधुनिक दृष्टि से देवी का स्वरूप

यदि हम वेदांत के सिद्धांत को आधुनिक भाषा में समझें तो –

  • ब्रह्म = सार्वभौमिक चेतना, Universal Consciousness।
  • शक्ति (दुर्गा) = वही ऊर्जा, Cosmic Energy।
  • जगत = उसी ऊर्जा की विविध अभिव्यक्तियाँ।

इसलिए, दुर्गा की उपासना का अर्थ है – उस सार्वभौमिक ऊर्जा से जुड़ना, उसे पहचानना और उसमें लय होना।


10. निष्कर्ष

  • वेदांत की दृष्टि से देवी कोई बाहरी सत्ता नहीं, बल्कि ब्रह्म की शक्ति हैं।
  • त्रिगुणात्मक जगत की अधिष्ठात्री शक्ति ही दुर्गा है।
  • देवी का स्वरूप आंतरिक है – वे हमारे भीतर ज्ञान, विवेक और शक्ति का स्रोत हैं।
  • अद्वैत और दुर्गा उपासना दोनों मिलकर यही संदेश देते हैं कि ब्रह्म और शक्ति, शिव और शक्ति, जीव और ब्रह्म – सब एक ही अद्वितीय सत्ता के विविध रूप हैं।


भाग–4 : दुर्गा सप्तशती का गहन विश्लेषण

1. दुर्गा सप्तशती का परिचय

दुर्गा सप्तशती (जिसे देवी महात्म्य या चण्डी पाठ भी कहा जाता है) मार्कण्डेय पुराण का हिस्सा है। यह 700 श्लोकों का संकलन है और हिन्दू धर्म में शक्ति उपासना का सबसे प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।

  • इसकी रचना लगभग ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी मानी जाती है।
  • यह ग्रंथ देवी को सर्वशक्ति और सर्वचेतना का स्वरूप मानता है।
  • इसमें तीन खण्ड हैं –
    1. प्रथम चरित (महाकाली खण्ड)
    2. मध्यम चरित (महालक्ष्मी खण्ड)
    3. उत्तर चरित (महासरस्वती खण्ड)

इन तीन खण्डों में देवी को महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में वर्णित किया गया है।


2. दुर्गा सप्तशती की संरचना

  • प्रथम चरित (अध्याय 1) : मदुकैटभ दैत्य का वध (महाकाली स्वरूप)।
  • मध्यम चरित (अध्याय 2–4) : महिषासुर का वध (महालक्ष्मी स्वरूप)।
  • उत्तर चरित (अध्याय 5–13) : शुंभ-निशुंभ, चंड-मुंड, धूम्रलोचन, रक्तबीज आदि दैत्यों का वध (महासरस्वती स्वरूप)।

3. देवी के तीन स्वरूप और वेदांत का दार्शनिक आधार

(क) महाकाली – तमोगुण का शुद्धिकरण

  • जब ब्रह्मांड पर अज्ञान और तमोगुण हावी हो जाता है, तब देवी महाकाली के रूप में प्रकट होती हैं।
  • वे मदु और कैटभ नामक दैत्यों का वध करती हैं।
  • दार्शनिक अर्थ : मदु और कैटभ रजस और तमस के संयोग से उत्पन्न वासनाएँ हैं। महाकाली इन्हें नष्ट कर साधक को ज्ञान की ओर ले जाती हैं।

(ख) महालक्ष्मी – रजोगुण का संतुलन

  • महालक्ष्मी महिषासुर का वध करती हैं।
  • महिषासुर = अहंकार और कामना का प्रतीक।
  • दार्शनिक अर्थ : जब रजोगुण अनियंत्रित हो जाता है, तो महालक्ष्मी साधक को धर्मपथ पर स्थापित करती हैं।

(ग) महासरस्वती – सतोगुण का परिष्कार

  • महासरस्वती शुंभ-निशुंभ और अन्य दैत्यों का वध करती हैं।
  • शुंभ = अहंकार।
  • निशुंभ = स्वार्थ और द्वेष।
  • दार्शनिक अर्थ : सतोगुण का विकास तभी संभव है जब अहंकार और स्वार्थ नष्ट हों।

4. सप्तशती के प्रमुख श्लोक और अद्वैत की झलक

(1) या देवी सर्वभूतेषु…

या देवी सर्वभूतेषु चैतन्यरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

  • यह मंत्र सप्तशती में बार-बार आता है।
  • इसका अर्थ है – वह देवी जो सभी प्राणियों में चेतना के रूप में स्थित है, उनको बार-बार प्रणाम है।
  • अद्वैत दृष्टि : यह श्लोक कहता है कि देवी केवल किसी मूर्ति या मंदिर में नहीं, बल्कि हर प्राणी की चेतना में विद्यमान हैं। यही अद्वैत है – सबमें एक ही शक्ति का वास।

(2) देवी का आत्मबोध

सप्तशती में देवी स्वयं कहती हैं –
अहमेव जगत्सृज्याऽहमेव स्थिता अहमेव लयं गमिष्यामि।
(मैं ही जगत को उत्पन्न करती हूँ, मैं ही उसका पालन करती हूँ और मैं ही उसका संहार करती हूँ।)

  • दार्शनिक अर्थ : यह कथन सीधे वेदांत के “ब्रह्म” सिद्धांत से मेल खाता है।
  • ब्रह्म ही सृष्टि का कारण है – जनमाद्यस्य यतः (ब्रह्मसूत्र)।
  • दुर्गा सप्तशती देवी को इसी परम कारण के रूप में स्थापित करती है।

(3) महिषासुरमर्दिनी प्रसंग

  • देवता जब असुरों से पराजित हो जाते हैं, तो वे ब्रह्मा, विष्णु और शिव की शरण में जाते हैं।
  • तीनों देवताओं की शक्तियाँ मिलकर एक तेजस्वी स्त्री-रूप में प्रकट होती हैं – वही महालक्ष्मी (दुर्गा) हैं।
  • दार्शनिक अर्थ : देवताओं की शक्तियाँ वास्तव में जीव के भीतर की आंतरिक शक्तियाँ हैं। जब वे संगठित होती हैं, तब साधक अपने विकारों (महिषासुर) पर विजय पाता है।

5. सप्तशती का मनोवैज्ञानिक अर्थ

दुर्गा सप्तशती केवल पौराणिक कथा नहीं, बल्कि मानव मन का प्रतीकात्मक ग्रंथ है।

  • महिषासुर = वासनाएँ और इच्छाएँ।
  • रक्तबीज = कामनाओं की अनंत श्रृंखला (एक नष्ट हो तो दूसरी उत्पन्न)।
  • शुंभ-निशुंभ = अहंकार और स्वार्थ।
  • चंड-मुंड = क्रोध और हिंसा।

देवी = विवेक और शक्ति।
अर्थात् जब विवेक सक्रिय होता है, तो मनुष्य अपने विकारों पर विजय पाता है।


6. अद्वैत और सप्तशती का समन्वय

  • अद्वैत कहता है कि संसार मिथ्या है, केवल ब्रह्म सत्य है।
  • सप्तशती कहती है कि देवी ही ब्रह्म का व्यक्त स्वरूप हैं।
  • दोनों का लक्ष्य एक ही है – जीव को उसके वास्तविक स्वरूप (ब्रह्म) का बोध कराना।

7. उपासना की भूमिका

सप्तशती का पाठ करने का विधान है –

  • नवमी, अष्टमी और नवरात्रि में विशेष महत्व।
  • भक्त देवी के श्लोकों का पाठ कर शक्ति और विवेक की अनुभूति करता है।

दार्शनिक दृष्टि से –

  • यह साधना अविद्या से विद्या की ओर ले जाती है।
  • मनुष्य के भीतर की सुप्त शक्ति को जागृत करती है।

8. सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थ

  • दुर्गा सप्तशती ने भारतीय समाज को यह शिक्षा दी कि नारी केवल गृहिणी नहीं, बल्कि शक्ति स्वरूपा है।
  • बंगाल, असम और पूर्वी भारत में दुर्गा पूजा इसी ग्रंथ पर आधारित है।
  • स्वतंत्रता संग्राम के समय “वंदे मातरम्” गीत में भारतमाता को दुर्गा के रूप में चित्रित किया गया – यह भी सप्तशती से प्रेरित था।

9. आधुनिक परिप्रेक्ष्य

आज के समय में दुर्गा सप्तशती का संदेश यह है कि –

  • हमारे भीतर ही असुर (विकार) हैं।
  • देवी उपासना का अर्थ है – आत्मशक्ति और विवेक को जाग्रत करना।
  • जब हम अपने भीतर के महिषासुर को मारते हैं, तभी वास्तविक “विजयादशमी” होती है।

10. निष्कर्ष

  • दुर्गा सप्तशती केवल पुराणकथा नहीं, बल्कि वेदांत दर्शन का सजीव रूप है।
  • यह बताती है कि देवी = ब्रह्म की शक्ति, वही चेतना और वही ऊर्जा हैं।
  • देवी उपासना = आत्मसाक्षात्कार का साधन।
  • अद्वैत और दुर्गा सप्तशती – दोनों का लक्ष्य एक ही है :
    जीव को यह बोध कराना कि वह स्वयं वही परम ब्रह्म है।

भाग–5 : देवी और मानव जीवन

1. प्रस्तावना

भारतीय संस्कृति में “देवी” केवल किसी विशेष देवता की उपासना नहीं है, बल्कि यह जीवन-दर्शन है। दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, काली – इन सबमें स्त्रीशक्ति और मानवीय चेतना के विभिन्न आयामों को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त किया गया है।

वेदांत दर्शन और दुर्गा सप्तशती दोनों इस बात को स्पष्ट करते हैं कि देवी केवल बाहरी पूजा का विषय नहीं हैं, बल्कि वे मानव जीवन की अंतर्यात्रा का मार्गदर्शन करती हैं।


2. देवी का जीवन-चक्र से संबंध

  1. जन्म के समय – देवी को “शक्ति” मानकर माता को सम्मान दिया जाता है। माता = दुर्गा का अवतार।
  2. शिक्षा काल में – सरस्वती का आह्वान, ज्ञान का प्रतीक।
  3. गृहस्थ जीवन में – लक्ष्मी की पूजा, संपन्नता और संतुलन का प्रतीक।
  4. कठिनाई के समय – काली/दुर्गा का स्मरण, आंतरिक साहस और रक्षा का प्रतीक।
  5. जीवन के अंत में – शक्ति के ब्रह्म में लीन होने का बोध।

3. देवी और मनोविज्ञान

मानव मन तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) से बना है।

  • दुर्गा = इन गुणों का संतुलन।
  • महाकाली = तमस का शुद्धिकरण।
  • महालक्ष्मी = रजस का संतुलन।
  • महासरस्वती = सत्व का परिष्कार।

इस दृष्टि से देवी = मानसिक संतुलन और आत्मविकास का सूत्र।


4. देवी और स्त्री का सामाजिक स्थान

दुर्गा सप्तशती ने भारतीय समाज को यह सन्देश दिया कि –

  • नारी केवल करुणा की मूर्ति नहीं, बल्कि शक्ति का स्रोत भी है।
  • महिषासुरमर्दिनी दुर्गा = अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध स्त्री की प्रतिरोध-शक्ति।
  • स्वतंत्रता संग्राम में भारतमाता को दुर्गा रूप में चित्रित किया गया – यह भी स्त्रीशक्ति की राष्ट्रीय मान्यता है।

नारी सशक्तिकरण की आधुनिक अवधारणा का बीज भारतीय देवी-दर्शन में बहुत पहले ही रखा जा चुका था।


5. देवी और नैतिकता

दुर्गा सप्तशती केवल शक्ति की गाथा नहीं, बल्कि नैतिकता का भी पाठ है।

  • महिषासुर = अहंकार और वासना।
  • शुंभ-निशुंभ = स्वार्थ और अहंमन्यता।
  • रक्तबीज = अनियंत्रित इच्छाएँ।

देवी का वध = इन विकारों का दमन।
नैतिक जीवन का अर्थ = आंतरिक देवी को जागृत करना।


6. देवी और अध्यात्म

वेदांत कहता है कि आत्मा = ब्रह्म।
दुर्गा सप्तशती कहती है कि देवी = वही ब्रह्मशक्ति।

इसका तात्पर्य यह है कि –

  • जब हम देवी की उपासना करते हैं, तो वास्तव में हम अपने भीतर की शक्ति को जगाते हैं।
  • देवी का स्मरण = अद्वैत की ओर यात्रा।
  • पूजा का बाहरी रूप = साधन;
    आत्मज्ञान = साध्य।

7. देवी और आधुनिक जीवन

आज की दुनिया में –

  • तनाव, चिंता, प्रतिस्पर्धा = आधुनिक असुर।
  • लालच, भ्रष्टाचार, हिंसा = महिषासुर और शुंभ-निशुंभ के नए रूप।
  • देवी उपासना = आत्म-नियंत्रण, संतुलन और करुणा की साधना।

व्यावहारिक संदेश :

  • सरस्वती = शिक्षा और विवेक का महत्व।
  • लक्ष्मी = श्रम और संतुलित उपभोग।
  • दुर्गा = अन्याय और शोषण के खिलाफ संघर्ष।
  • काली = भय और मृत्यु पर विजय।

8. जीवन के चार पुरुषार्थ और देवी

भारतीय दर्शन में जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गए हैं – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष

  • धर्म = सरस्वती का विवेक।
  • अर्थ = लक्ष्मी का संतुलन।
  • काम = दुर्गा का संयम और मर्यादा।
  • मोक्ष = काली का अद्वैतबोध।

देवी = इन चारों पुरुषार्थों का समन्वय।


9. देवी का सार्वभौमिक संदेश

यद्यपि दुर्गा सप्तशती भारतीय ग्रंथ है, परन्तु इसका संदेश सार्वभौमिक है –

  • हर संस्कृति में देवी शक्ति का कोई-न-कोई रूप मिलता है।
  • ग्रीक संस्कृति में एथेना, मिस्र में आइसिस, रोम में वीनस – सभी देवी शक्तियाँ हैं।
  • इसका अर्थ है कि मानवता ने हर जगह स्त्री को शक्ति और सृष्टि का आधार माना है।

10. निष्कर्ष

मानव जीवन में देवी का अर्थ है –

  • आंतरिक शक्ति का जागरण।
  • विवेक, साहस और संतुलन का विकास।
  • स्त्री का सम्मान और सशक्तिकरण।
  • जीवन की चुनौतियों से संघर्ष करने की क्षमता।

दुर्गा = केवल पौराणिक देवी नहीं, बल्कि मानव जीवन की आंतरिक शक्ति और अद्वैत ब्रह्म का साक्षात रूप।


भाग–6 : वेदांत, अद्वैतवाद और दुर्गा-दर्शन का समन्वित निष्कर्ष


1. प्रस्तावना

दुर्गा-सप्तशती और वेदांत-दर्शन दो अलग-अलग धारा प्रतीत होते हैं।

  • सप्तशती में देवी की लीलाएँ, युद्ध और विजय की कथाएँ हैं।
  • वेदांत में आत्मा, ब्रह्म और अद्वैत का शुद्ध दार्शनिक विवेचन है।

लेकिन जब हम गहराई से देखते हैं, तो पाते हैं कि दोनों का मूल एक ही है –
संपूर्ण जगत एक ही अद्वैत सत्ता का विस्तार है, और वह सत्ता “शक्ति” के रूप में अनुभव होती है।


2. वेदांत का आधार

  • उपनिषदों का उद्घोष : “सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म”
  • आत्मा और ब्रह्म अभिन्न।
  • अद्वैतवाद का सिद्धांत : “अहं ब्रह्मास्मि” और “तत्त्वमसि।”

अर्थात –
ब्रह्म = शुद्ध चैतन्य।
माया/शक्ति = उसी चैतन्य का सृजनात्मक पक्ष।


3. दुर्गा सप्तशती का आधार

  • ब्रह्माण्ड की रचना, पालन और संहार देवी द्वारा।
  • असुरों का वध = मनोविकारों का नाश।
  • देवी का महामाया रूप = वही शक्ति जो ब्रह्म से अभिन्न है।
  • देवीसूक्त (ऋग्वेद) में देवी का उद्घोष :
    “अहं राष्ट्री संगमनी वसुना…”
    अर्थात देवी स्वयं को विश्वव्यापी सत्ता के रूप में प्रकट करती हैं।

4. अद्वैत और देवी-दर्शन का मिलन

  1. ब्रह्म और शक्ति :

    • शंकराचार्य ने कहा – “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।”
    • परन्तु “जगन्मिथ्या” का अर्थ शून्यता नहीं, बल्कि शक्ति की लीला है।
    • दुर्गा = वही शक्ति जो जगत को प्रकट करती है।
  2. आत्मा और देवी :

    • वेदांत कहता है – आत्मा ही ब्रह्म है।
    • सप्तशती कहती है – हर जीव में देवी का अंश है।
    • निष्कर्ष = आत्मा और देवी अभिन्न।
  3. उपासना और ज्ञान :

    • वेदांत = आत्मज्ञान का मार्ग।
    • सप्तशती = भक्ति और उपासना का मार्ग।
    • अद्वैत समाधान = भक्ति और ज्ञान दोनों का मिलन।

5. देवी और अद्वैत साधना

  • अद्वैत साधना में साधक अपने भीतर ब्रह्म का साक्षात्कार करता है।
  • दुर्गा साधना में साधक अपने भीतर शक्ति को जागृत करता है।
  • शक्ति जागरण = आत्मज्ञान की तैयारी।
  • अतः दुर्गा उपासना = अद्वैत साधना का व्यावहारिक रूप।

6. माया और महामाया

  • शंकराचार्य ने माया को अविद्या कहा।
  • दुर्गा सप्तशती में वही माया देवी का स्वरूप है।
  • भिन्नता केवल दृष्टिकोण की है –
    • दार्शनिक दृष्टि = माया से मुक्त होना।
    • भक्तिपूर्ण दृष्टि = माया को देवी रूप में पूजना।
  • परंतु निष्कर्ष समान है –
    माया/महामाया ही ब्रह्म की लीला है।

7. मानव जीवन के लिए संदेश

  1. असुर-वध = मनोविकारों पर नियंत्रण।
  2. देवी-पूजन = आत्मविश्वास और साहस का जागरण।
  3. वेदांत बोध = आत्मा और ब्रह्म की एकता का अनुभव।
  4. अद्वैत निष्कर्ष =
    • देवी बाहर नहीं, भीतर हैं।
    • शक्ति बाहर नहीं, हमारे ही चैतन्य का प्रकट रूप है।

8. समन्वित निष्कर्ष

  • वेदांत और दुर्गा-दर्शन विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।
  • वेदांत हमें अंतिम सत्य (ब्रह्म) तक पहुँचाता है।
  • दुर्गा सप्तशती हमें उस सत्य तक पहुँचने की साधना और आंतरिक शक्ति देती है।
  • अद्वैतवाद कहता है – सब एक है।
  • दुर्गा-दर्शन कहता है – वही एक सत्ता शक्ति बनकर सर्वत्र व्याप्त है।

अतः –
“दुर्गा ही ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही दुर्गा हैं।”


9. अंतिम संदेश

  • देवी केवल एक धार्मिक प्रतीक नहीं, बल्कि आत्मबोध का मार्ग हैं।
  • वेदांत का अद्वैत और दुर्गा सप्तशती का शक्ति-दर्शन मिलकर यही सिखाते हैं –
    • ब्रह्म ही शक्ति है।
    • शक्ति ही देवी है।
    • देवी ही आत्मा है।
    • और आत्मा ही ब्रह्म है।

यही वेदांत और दुर्गा-दर्शन का समन्वित अद्वैत निष्कर्ष है।


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