Monday, July 7, 2025

क्या हम शिक्षा में फिर से वर्गभेद की ओर लौट रहे हैं?

क्या हम शिक्षा में फिर से वर्गभेद की ओर लौट रहे हैं?



सरकारी विद्यालयों की स्थिति और आधुनिक गुरुकुल की ओर बढ़ते कदम

भारत का इतिहास गवाह है कि शिक्षा हमेशा से समाज की संरचना और समानता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आई है। गुलामी से पहले की गुरुकुल व्यवस्था को गौरवशाली बताया जाता है, लेकिन सच यह है कि वह व्यवस्था केवल समाज के उच्च वर्गों के लिए सुलभ थी। दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और निचली जातियों को शिक्षा से दूर रखा गया था। यह सामाजिक विभाजन शैक्षिक भेदभाव का सबसे प्राचीन उदाहरण था।

अंग्रेज़ी शिक्षा और समानता की शुरुआत

अंग्रेजों के आगमन के साथ भले ही भारत की आज़ादी छीनी गई, लेकिन एक ऐसी शिक्षा प्रणाली की नींव रखी गई जिसमें वर्ग, जाति और लिंग के आधार पर प्रवेश नहीं था। अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा ने भारत में एक नए सामाजिक बदलाव को जन्म दिया। स्वतंत्रता के बाद इस सोच को आगे बढ़ाते हुए सरकार ने सभी के लिए शिक्षा को अनिवार्य और सुलभ बनाने की दिशा में कई प्रयास किए।

स्वतंत्र भारत और शिक्षा का लोकतंत्रीकरण

भारत के गाँव-गाँव में सरकारी विद्यालयों की स्थापना की गई, ताकि हर बच्चा—चाहे किसी भी जाति, धर्म या आर्थिक स्थिति से हो—पढ़ सके, बढ़ सके और अपने जीवन को सुधार सके। यह एक समावेशी और न्यायपूर्ण भारत की ओर महत्वपूर्ण कदम था।

वैश्वीकरण के बाद शिक्षा में निजीकरण का प्रवेश

1990 के दशक में जब भारत ने वैश्वीकरण और उदारीकरण को अपनाया, तब शिक्षा क्षेत्र में भी निजीकरण का प्रवेश हुआ। इसके साथ ही शिक्षा दो धाराओं में बँट गई:

  • निजी विद्यालय: उच्च गुणवत्ता, आधुनिक तकनीक, अंतर्राष्ट्रीय पाठ्यक्रम—लेकिन अत्यधिक महंगे और आम जनता की पहुँच से बाहर।

  • सरकारी विद्यालय: सीमित संसाधन, शिक्षकों की कमी, और घटती गुणवत्ता—गरीब और वंचित वर्ग के लिए एकमात्र विकल्प।

सरकारी शिक्षा व्यवस्था की उपेक्षा

धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों की स्थिति बदतर होती गई। न तो पर्याप्त शिक्षक हैं, न ही आधारभूत ढाँचा। सरकार की उदासीनता और समाज की बेरुखी के कारण इन विद्यालयों से पढ़े छात्र न तो प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल हो पा रहे हैं, न ही रोजगार में। इस स्थिति ने 'ड्रॉप आउट' दर को बढ़ा दिया है, जिससे बच्चों का भविष्य अधर में लटक गया है।

क्या यह आधुनिक गुरुकुल व्यवस्था है?

आज जब हम सरकारी विद्यालयों को बंद होते देख रहे हैं और निजी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा दिया जा रहा है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है—क्या हम उसी वर्ग आधारित शिक्षा व्यवस्था की ओर लौट रहे हैं जिसे हमने आज़ादी के बाद खत्म करने की कोशिश की थी?

क्या गरीब, दलित और आदिवासी बच्चे एक बार फिर शिक्षा के दरवाज़े से बाहर कर दिए जाएँगे? क्या शिक्षा फिर से केवल संभ्रांत वर्गों के लिए एक विशेषाधिकार बन जाएगी?

निष्कर्ष: सबके लिए एक समान शिक्षा की आवश्यकता

अगर हम एक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करते हैं, तो हमें शिक्षा में समानता सुनिश्चित करनी होगी। सरकारी विद्यालयों को बंद करने के बजाय उन्हें मजबूत करना, गुणवत्ता बढ़ाना, और संसाधन उपलब्ध कराना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए।

शिक्षा सिर्फ ज्ञान देने का साधन नहीं, बल्कि समाज को बराबरी की दिशा में ले जाने वाला एक पुल है। यह पुल अगर टूट गया, तो समाज दो भागों में विभाजित हो जाएगा—एक जो जानता है, और एक जो वंचित रह गया।


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