भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हमेशा भावनाओं का तूफ़ान खड़ा करते हैं। लेकिन इस बार सवाल सिर्फ़ खेल तक सीमित नहीं है। एक तरफ़ भारत पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाता है, सीमा पर शहादत देने वाले जवानों की यादें ताज़ा रहती हैं, और बार-बार यह घोषणा होती है कि "हम पाकिस्तान से किसी भी स्तर पर संबंध नहीं रखेंगे।" वहीं दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के नाम पर हम उसी पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलते हैं। यह विरोधाभास क्या दर्शाता है? क्या हम सिर्फ़ भाषणों में राष्ट्रवादी हैं और व्यवहार में समझौता कर लेते हैं?
1. राष्ट्रवाद और व्यवहार में विरोधाभास
नेताओं के भाषण और नीतिगत निर्णयों में अक्सर अंतर दिखाई देता है। जनता को सख़्त संदेश दिया जाता है कि पाकिस्तान से कोई संबंध नहीं रखेंगे, लेकिन जब क्रिकेट होता है, तो वही जनता टीवी पर मैच देखकर जश्न मनाती है। यह स्थिति सवाल खड़ा करती है कि राष्ट्रवाद सिर्फ़ "जनभावनाओं को भड़काने का औज़ार" बन गया है या सचमुच व्यवहार में उतरा है।
2. ICC और अंतरराष्ट्रीय दबाव
अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (ICC) का तर्क है कि खेल को राजनीति से अलग रखा जाना चाहिए। यदि भारत पाकिस्तान के खिलाफ़ खेलने से इनकार करता है, तो उसे अंक कटौती, जुर्माना या टूर्नामेंट से बाहर होने जैसी सज़ा मिल सकती है। यानी भारत वैश्विक दबाव में फँसा हुआ है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या राष्ट्रीय सुरक्षा और शहीदों की कुर्बानियों से बड़ा कोई टूर्नामेंट हो सकता है?
3. जनता की चुप्पी
जनता जागरूक होकर विरोध करे तो सरकार को भी कठोर रुख अपनाना पड़ सकता है। लेकिन आज हालात यह हैं कि जनता या तो "खेल को राजनीति से अलग" मानकर चुप हो जाती है या फिर राष्ट्रवाद का शोर सिर्फ़ सोशल मीडिया तक सीमित रहता है। असली जागरूकता तभी आएगी जब लोग सरकार से साफ़-साफ़ सवाल पूछें—अगर पाकिस्तान दुश्मन है, तो उसके साथ क्रिकेट क्यों?
4. नैतिक विरोध और वैश्विक संदेश
भारत अमेरिका और चीन को पाकिस्तान के साथ खड़े होने के लिए कोसता है। लेकिन जब खुद उसी पाकिस्तान के साथ मैच खेलता है, तो दुनिया को कैसा संदेश जाता है? यह स्पष्ट नैतिक विरोधाभास है। यदि हम पाकिस्तान को आतंक का प्रायोजक मानते हैं, तो हमें हर स्तर पर उससे दूरी बनानी चाहिए—चाहे राजनीति हो, व्यापार हो या खेल।
भारत–पाकिस्तान क्रिकेट सिर्फ़ खेल नहीं है, यह राष्ट्रीय नीति और जनता की भावनाओं का आईना है। जब तक हम राष्ट्रवाद को केवल भाषणों और सोशल मीडिया के नारों तक सीमित रखेंगे, तब तक ऐसे विरोधाभास बने रहेंगे। असली राष्ट्रवाद वही है जो शब्दों से नहीं, बल्कि व्यवहार और नीति में दिखे।
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